कल लालू प्रसाद यादव को लोकसभा में बोलते हुए सुना। वह भड़के हुए थे। वह इस बात पर नाराज़ थे कि केंद्र की यूपीए सरकार अन्ना हजारे नाम के एक इंसान के आंदोलन से डरकर एक ऐसा बिल ला रही है जिससे संसद के कानून बनाने के एकाधिकार पर आंच आती है। उनके अनुसार कानून बनाने का अधिकार संसद को है और सड़कों पर होनेवाले आंदोलनों के दबाव में उसे नहीं आना चाहिए। वह कांग्रेस सरकार से पूछ रहे थे कि आखिर वह क्यों अन्ना हजारे से इतना डर रही है कि आनन-फानन में लोकपाल बिल ला रही है।
लालू लोकपाल बिल का विरोध कर रहे थे इस पर हैरत नहीं हुई। लालू, मुलायम, मायावती, जयललिता जैसे नेताओं से हम उम्मीद कर ही कैसे सकते थे कि वे एक ऐसे बिल का समर्थन करेंगे जिससे उनकी गरदन फंसने की रत्ती भर भी आशंका हो। उनके लिए तो मौजूदा व्यवस्था बहुत बढ़िया है जहां करोड़ों के घपले करने के बाद भी आज वे लोकसभा के माननीय सांसद या किसी राज्य की मुख्यमंत्री के पद पर आसीन हैं। देश की न्यायिक प्रक्रिया इतनी कमाल की है कि महंगे वकीलों के बल पर ये सारे नेता अपने खिलाफ चल रहे मामलों को सालोंसाल खींच सकते हैं, खींच रहे हैं और अदालतों से बरी होकर निकल रहे हैं। तो फिर ऐसे नेता ऐसा लोकपाल क्यों बनने देंगे जो छह महीने में उन्हें अंदर कर दे! क्या वे पागल हैं?
इसी तरह मुलायम सिंह यादव जिन समाजवादी नेता लोहिया को गाहे-बगाहे याद कर लेते हैं, उन्हीं राममनोहर लोहिया का मशहूर बयान है कि जिंदा कौमें पांच साल तक इंतज़ार नहीं करतीं। इस वाक्य का मतलब क्या है – यही न कि चुनाव में विधायक या सांसद चुनने के बाद भी जनता अपने विधायकों और सांसदों या सरकारों से सवाल पूछ सकती है, उन्हें वापस बुला सकती है, उनके खिलाफ सड़कों पर उतर सकती है।
एक टीवी चैनल पर कल रामविलास पासवान बोल रहे थे – यह अन्ना हजारे क्या है! मैं अगर उनको जवाब देने की हालत में होता तो यही कहता – पासवान जी, अन्ना हजारे वह हैं जिन्होंने अपनी जिंदगी में शायद ही कभी कोई ऐसा काम किया हो जिसमें उनका कोई निजी फायदा हो। और आपलोग! आपलोगों ने अपनी ज़िंदगी में शायद ही कभी कोई ऐसा काम किया हो जिसमें आपका अपना कोई फायदा न हो।
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