Sunday 25 December 2011


कल लालू प्रसाद यादव को लोकसभा में बोलते हुए सुना। वह भड़के हुए थे। वह इस बात पर नाराज़ थे कि केंद्र की यूपीए सरकार अन्ना हजारे नाम के एक इंसान के आंदोलन से डरकर एक ऐसा बिल ला रही है जिससे संसद के कानून बनाने के एकाधिकार पर आंच आती है। उनके अनुसार कानून बनाने का अधिकार संसद को है और सड़कों पर होनेवाले आंदोलनों के दबाव में उसे नहीं आना चाहिए। वह कांग्रेस सरकार से पूछ रहे थे कि आखिर वह क्यों अन्ना हजारे से इतना डर रही है कि आनन-फानन में लोकपाल बिल ला रही है।

लालू लोकपाल बिल का विरोध कर रहे थे इस पर हैरत नहीं हुई। लालू, मुलायम, मायावती, जयललिता जैसे नेताओं से हम उम्मीद कर ही कैसे सकते थे कि वे एक ऐसे बिल का समर्थन करेंगे जिससे उनकी गरदन फंसने की रत्ती भर भी आशंका हो। उनके लिए तो मौजूदा व्यवस्था बहुत बढ़िया है जहां करोड़ों के घपले करने के बाद भी आज वे लोकसभा के माननीय सांसद या किसी राज्य की मुख्यमंत्री के पद पर आसीन हैं। देश की न्यायिक प्रक्रिया इतनी कमाल की है कि महंगे वकीलों के बल पर ये सारे नेता अपने खिलाफ चल रहे मामलों को सालोंसाल खींच सकते हैं, खींच रहे हैं और अदालतों से बरी होकर निकल रहे हैं। तो फिर ऐसे नेता ऐसा लोकपाल क्यों बनने देंगे जो छह महीने में उन्हें अंदर कर दे! क्या वे पागल हैं?

जैसा कि मैंने ऊपर कहा, मुझे लालू या मुलायम द्वारा इस बिल का विरोध करने पर हैरत नहीं है। हैरत इस बात पर है कि वे सड़कों पर होनेवाले आंदोलनों पर सवाल उठा रहे हैं, उन्हें हिकारत की नज़र से देख रहे हैं और कह रहे हैं कि अन्ना या उनके समर्थकों की औकात ही क्या है। विश्वास नहीं होता कि ये वही नेता हैं जो राममनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण को अपना नेता मानते हैं (या शायद थे) और जिनके साथ सड़कों पर आंदोलन करते हुए वे आज इस जगह पर पहुंचे हैं। मुझे याद है, 1974 में जयप्रकाश नारायण के बिहार आंदोलन की जब उन्होंने तब की अब्दुल गफ्फूर सरकार के खिलाफ आंदोलन छेड़ा था। अगले साल उन्होंने दिल्ली में सत्तासीन इंदिरा गांधी की सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए देश भर में आंदोलन छेड़ा था। क्या उस समय विधानसभा में अब्दुल गफ्फूर को बहुमत का समर्थन नहीं था? क्या इंदिरा गांधी को तब की लोकसभा में बहुमत प्राप्त नहीं था? अगर था तो इन बहुमत-प्राप्त नेताओं को हटाने के लिए सड़कों पर आंदोलन क्यों छेड़ा गया? तब इन लालू यादव ने क्यों नहीं कहा कि भारतीय संविधान के तहत विधानसभा और संसद जन आंदोलनों से बड़ी होती हैं।

इसी तरह मुलायम सिंह यादव जिन समाजवादी नेता लोहिया को गाहे-बगाहे याद कर लेते हैं, उन्हीं राममनोहर लोहिया का मशहूर बयान है कि जिंदा कौमें पांच साल तक इंतज़ार नहीं करतीं। इस वाक्य का मतलब क्या है – यही न कि चुनाव में विधायक या सांसद चुनने के बाद भी जनता अपने विधायकों और सांसदों या सरकारों से सवाल पूछ सकती है, उन्हें वापस बुला सकती है, उनके खिलाफ सड़कों पर उतर सकती है।

सड़कों से अपनी राजनीति शुरू करके संसद या विधानसभा तक पहुंचने वाले ये नेता आज सड़कों से शुरू और सड़कों पर ही खत्म होने वाली अन्ना की राजनीति से खौफ खा रहे हैं। आज उन्हें सड़कों पर जमा होनेवाली भीड़ से डर लगने लगा है। शायद इसलिए कि उनको पता है, यह भीड़ किराए की नहीं है। इसलिए भी कि यह भीड़ किसी धर्म, किसी जाति, किसी वर्ग के संकीर्ण हितों की मांग के लिए इकट्ठा नहीं हुई है। और शायद इसलिए भी कि इस भीड़ का जो नेता है, वह किसी कुर्सी या सुविधा के लालच में आगे नहीं बढ़ा है।

एक टीवी चैनल पर कल रामविलास पासवान बोल रहे थे – यह अन्ना हजारे क्या है! मैं अगर उनको जवाब देने की हालत में होता तो यही कहता – पासवान जी, अन्ना हजारे वह हैं जिन्होंने अपनी जिंदगी में शायद ही कभी कोई ऐसा काम किया हो जिसमें उनका कोई निजी फायदा हो। और आपलोग! आपलोगों ने अपनी ज़िंदगी में शायद ही कभी कोई ऐसा काम किया हो जिसमें आपका अपना कोई फायदा न हो।

ਆਓ ਅਸੀਂ ਵੀ ਇਕ ਚਪੇੜ ਮਾਰੀਏ

ਕੁਝ ਦਿਨ  ਪਹਿਲਾਂ ਦਿਲੀ ਦੇ ਇਕ  ਸਿਖ ਨੋਜਵਾਨ ਨੇ  ਕੇਂਦਰੀ ਮੰਤਰੀ ਦੇ ਚਪੇੜ  ਜੜ ਦਿਤੀ . ਲੋਕਾਂ ਨੂੰ ਬੜਾ ਹੀ ਮਜਾ ਆਇਆ . ਕੁਝ ਮੀਡਿਆ ਦੇ ਲੋਕਾਂ ਨੇ ਇਸ ਨੂੰ ਗਲਤ ਵੀ ਦਸਿਆ , ਪਰ ਇਹ ਆਲੋਚਨਾ  ਸਿਰਫ  ਕਾਗਾਚਾਂ ਵਿਚ ਹੀ ਸੀ . ਚਾਹੇ ਉਹ ਇਸ ਨੂੰ ਗਲਤ ਹਰਕਤ ਲਿਖ ਰਹੇ ਸੀ , ਪਰ  ਇਹ ਲਿਖਦਿਆਂ ਉਨਾਂ ਦੇ ਮਨ ਚ  ਗੁਸਾ ਨਹੀ ਸੀ ਬਲਕਿ ਚੇਹੇਰੇ ਤੇ ਮੁਸਕਾਨ ਸੀ . ਕੀਤੇ ਨਾਂ ਕੀਤੇ ਇਹ ਚਪੇੜ ਕਾਂਡ ਉਨਾਂ ਦੇ ਮੰਨ  ਨੂੰ ਸਕੂਨ ਦੇ ਰਿਹਾ ਸੀ. ਦੇਸ਼ ਦੇ ਹਾਲਤ ਹੀ ਇਹੋ ਜਿਹੇ ਹੋ ਗਏ ਹਨ . ਹਰ ਆਦਮੀ ਇਹਨਾਂ ਰਾਜਨੀਤੀਵਾਨਾ  ਨੂੰ ਚਪੇੜ ਮਾਰਨਾ ਚਾਹੁੰਦਾ ਹੈ . ਹੋਰ ਤਾਂ ਹੋਰ ਅੰਨਾ ਜਿਹਾ ਗਾੰਧੀਵਾਦੀ ਵੀ    ਹੋ ਹਰ ਵਕਤ ਅਹਿੰਸਾ ਦੇ ਖਿਲਾਫ਼ ਬੋਲਦਾ ਹੈ ਦੇ ਮੁਹਾਂ ਚੋ ਨਿਕਲ ਗਿਆ ਬਸ ਇਕ ਹੀ ਚਪੇੜ .
ਮੈਂ ਵੀ ਇਕ ਲੇਖ ਲਿਖਿਯਾ ਜਿਸ ਵਿਚ ਇਸ ਚਪੇੜ ਕਾਂਡ ਦੀ ਨਿੰਦਾ ਕੀਤੀ , ਪਰ ਮੇਰੇ ਚਿਹਰੇ ਤੇ ਇਹ ਲਿਖਦੇ ਹੋਏ ਇਕ ਮੁਸਕਾਨ ਸੀ
. ਮੇਰੇ ਵਿਚਾਰ ਨਾਲ  ਹਰ ਆਦਮੀ ਨੂੰ ਚਪੇੜ ਮਾਰਨਾ ਚਾਹੀਦ  ਹੈ , ਉਹ  ਹਰਵਿੰਦਰ ਦੀ ਤਰਾਂ ਨਹੀ  ਬਲਕਿ  ਵੋਟ ਦੀ ਮੋਹਾਰ ਲਾਕੇ . ਹਰ ਵੋਟਰ ਨੂੰ ਇਹ ਸਮਝਨਾ  ਚਾਹਿਦਾ ਹੈ ਕੀ ਉਸ ਦੇ ਹਥ ਚ ਮੋਹਰ  ਨਹੀ ਬਲਕਿ  ਇਕ ਜੁਤੀ ਹੈ ਅਤੇ ਬਲੇਟ ਪੇਪਰ  ਕੰਗ੍ਰੇਸ੍ਸੀ ਲੀਡਰ  ਦਾ ਮੁਹਾਂ ਹੈ . ਖਾਸ ਕਰ ਕੇ ਪੰਜਾਬੀਆਂ ਨੂੰ ਤਾਂ ਇਸ ਤਰਾਂ ਹੀ ਸਮਝਣਾ ਚਾਹਿਦਾ ਹੈ . ਜੋ ਕਾੰਗ੍ਰੇਸ ਹੁਣ ਤਕ ਪੰਜਾਬ ਨਾਲ ਕਰਦੀ ਆਯੀ ਹੈ  ਉਸ ਦੀ ਤਾਂ ਇਹ ਹੀ ਸਜਾ ਹੈ
ਹੁਣ  ਚੋਣਾ ਦਾ  ਘੋਸ਼ਣਾ ਹੋ ਗਈ ਹੈ , ਸਭਨਾ ਨੀ ਅਮਰ ਕਦ

Friday 23 December 2011

ਦੇਸ਼ ਦਾ ਇਸ੍ਲਾਮੀਕਰਣ



कल लालू प्रसाद यादव को लोकसभा में बोलते हुए सुना। वह भड़के हुए थे। वह इस बात पर नाराज़ थे कि केंद्र की यूपीए सरकार अन्ना हजारे नाम के एक इंसान के आंदोलन से डरकर एक ऐसा बिल ला रही है जिससे संसद के कानून बनाने के एकाधिकार पर आंच आती है। उनके अनुसार कानून बनाने का अधिकार संसद को है और सड़कों पर होनेवाले आंदोलनों के दबाव में उसे नहीं आना चाहिए। वह कांग्रेस सरकार से पूछ रहे थे कि आखिर वह क्यों अन्ना हजारे से इतना डर रही है कि आनन-फानन में लोकपाल बिल ला रही है।

लालू लोकपाल बिल का विरोध कर रहे थे इस पर हैरत नहीं हुई। लालू, मुलायम, मायावती, जयललिता जैसे नेताओं से हम उम्मीद कर ही कैसे सकते थे कि वे एक ऐसे बिल का समर्थन करेंगे जिससे उनकी गरदन फंसने की रत्ती भर भी आशंका हो। उनके लिए तो मौजूदा व्यवस्था बहुत बढ़िया है जहां करोड़ों के घपले करने के बाद भी आज वे लोकसभा के माननीय सांसद या किसी राज्य की मुख्यमंत्री के पद पर आसीन हैं। देश की न्यायिक प्रक्रिया इतनी कमाल की है कि महंगे वकीलों के बल पर ये सारे नेता अपने खिलाफ चल रहे मामलों को सालोंसाल खींच सकते हैं, खींच रहे हैं और अदालतों से बरी होकर निकल रहे हैं। तो फिर ऐसे नेता ऐसा लोकपाल क्यों बनने देंगे जो छह महीने में उन्हें अंदर कर दे! क्या वे पागल हैं?

जैसा कि मैंने ऊपर कहा, मुझे लालू या मुलायम द्वारा इस बिल का विरोध करने पर हैरत नहीं है। हैरत इस बात पर है कि वे सड़कों पर होनेवाले आंदोलनों पर सवाल उठा रहे हैं, उन्हें हिकारत की नज़र से देख रहे हैं और कह रहे हैं कि अन्ना या उनके समर्थकों की औकात ही क्या है। विश्वास नहीं होता कि ये वही नेता हैं जो राममनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण को अपना नेता मानते हैं (या शायद थे) और जिनके साथ सड़कों पर आंदोलन करते हुए वे आज इस जगह पर पहुंचे हैं। मुझे याद है, 1974 में जयप्रकाश नारायण के बिहार आंदोलन की जब उन्होंने तब की अब्दुल गफ्फूर सरकार के खिलाफ आंदोलन छेड़ा था। अगले साल उन्होंने दिल्ली में सत्तासीन इंदिरा गांधी की सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए देश भर में आंदोलन छेड़ा था। क्या उस समय विधानसभा में अब्दुल गफ्फूर को बहुमत का समर्थन नहीं था? क्या इंदिरा गांधी को तब की लोकसभा में बहुमत प्राप्त नहीं था? अगर था तो इन बहुमत-प्राप्त नेताओं को हटाने के लिए सड़कों पर आंदोलन क्यों छेड़ा गया? तब इन लालू यादव ने क्यों नहीं कहा कि भारतीय संविधान के तहत विधानसभा और संसद जन आंदोलनों से बड़ी होती हैं।

इसी तरह मुलायम सिंह यादव जिन समाजवादी नेता लोहिया को गाहे-बगाहे याद कर लेते हैं, उन्हीं राममनोहर लोहिया का मशहूर बयान है कि जिंदा कौमें पांच साल तक इंतज़ार नहीं करतीं। इस वाक्य का मतलब क्या है – यही न कि चुनाव में विधायक या सांसद चुनने के बाद भी जनता अपने विधायकों और सांसदों या सरकारों से सवाल पूछ सकती है, उन्हें वापस बुला सकती है, उनके खिलाफ सड़कों पर उतर सकती है।

सड़कों से अपनी राजनीति शुरू करके संसद या विधानसभा तक पहुंचने वाले ये नेता आज सड़कों से शुरू और सड़कों पर ही खत्म होने वाली अन्ना की राजनीति से खौफ खा रहे हैं। आज उन्हें सड़कों पर जमा होनेवाली भीड़ से डर लगने लगा है। शायद इसलिए कि उनको पता है, यह भीड़ किराए की नहीं है। इसलिए भी कि यह भीड़ किसी धर्म, किसी जाति, किसी वर्ग के संकीर्ण हितों की मांग के लिए इकट्ठा नहीं हुई है। और शायद इसलिए भी कि इस भीड़ का जो नेता है, वह किसी कुर्सी या सुविधा के लालच में आगे नहीं बढ़ा है।

एक टीवी चैनल पर कल रामविलास पासवान बोल रहे थे – यह अन्ना हजारे क्या है! मैं अगर उनको जवाब देने की हालत में होता तो यही कहता – पासवान जी, अन्ना हजारे वह हैं जिन्होंने अपनी जिंदगी में शायद ही कभी कोई ऐसा काम किया हो जिसमें उनका कोई निजी फायदा हो। और आपलोग! आपलोगों ने अपनी ज़िंदगी में शायद ही कभी कोई ऐसा काम किया हो जिसमें आपका अपना कोई फायदा न हो।